रायपुर/छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में 25 मई 2013 को हुआ झीरम घाटी हमला भारतीय लोकतंत्र और जनप्रतिनिधित्व पर एक ऐसा काला धब्बा है, जिसकी टीस आज भी बरकरार है। यह हमला नक्सलवाद की उस चरम स्थिति को दर्शाता है जहां विचारधारा के नाम पर हिंसा को साध्य बना लिया गया। यह केवल लोगों की हत्या नहीं थी, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर एक सीधा और बर्बर आघात था।
हमले की पृष्ठभूमि:
घटना तब हुई जब कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा बस्तर के दरभा इलाके से गुजर रही थी। झीरम घाटी के घने जंगलों में माओवादियों ने घात लगाकर काफिले पर हमला कर दिया। करीब दो घंटे तक गोलियों की बौछार चली। नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट और घेराबंदी के जरिए इस हमले को अंजाम दिया।
मारे गए प्रमुख नेता:
इस हमले में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता मारे गए—पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार और महेंद्र कर्मा, जो सलवा जुडूम के संस्थापक माने जाते हैं। यह सब कुछ सरेआम और सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ।
महेंद्र कर्मा: लक्ष्य क्यों बने?
महेंद्र कर्मा को माओवादी अपने सबसे बड़े वैचारिक शत्रु मानते थे। उन्होंने आदिवासियों को माओवाद से दूर करने के लिए सलवा जुडूम की शुरुआत की थी। माओवादियों ने बार-बार उन्हें चेताया था, लेकिन कर्मा डटे रहे। झीरम घाटी में उनकी निर्मम हत्या एक संकेत थी कि माओवादी किसी भी विरोधी विचार को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
झीरम एक प्रतीक बन गया है:
झीरम घाटी अब केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं रहा, यह उस पीड़ा, उस सवाल और उस जद्दोजहद का प्रतीक बन गया है जिसमें राज्य, आम जनता और माओवादी एक त्रिकोणीय संघर्ष में उलझे हैं।
जांच और सियासत:
हमले के बाद राज्य और केंद्र सरकारों ने अलग-अलग जांच कमेटियां बनाईं, लेकिन आज तक कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकल सका। सियासत ने झीरम की पीड़ा को भी नहीं बख्शा—एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे। पीड़ित परिवार न्याय के इंतजार में हैं और जवाबों की तलाश में झीरम घाटी की ओर देखते हैं।
बस्तर का मनोविज्ञान:
झीरम हमले ने बस्तर के जनमानस को हिला दिया। आम आदिवासी जो खुद को हमेशा दो आग के बीच पाता है—एक तरफ सुरक्षा बलों का दबाव, दूसरी ओर माओवादियों की हिंसा—उसके लिए यह हमला और भी गहरा ज़ख्म था। इससे यह सवाल भी उठा कि क्या राज्य सच में बस्तर को समझ पाया है?
निष्कर्ष:
झीरम घाटी हमला सिर्फ एक आतंकवादी घटना नहीं, बल्कि लोकतंत्र, विचार और आत्म-संवेदनशीलता की परीक्षा थी। आज जब हम इस घटना को याद करते हैं, तो केवल दुख के साथ नहीं, बल्कि यह संकल्प भी लेना चाहिए कि बस्तर में विकास, संवाद और संवेदनशीलता की एक नई राह बनाई जाए—जहां हिंसा के लिए कोई जगह न हो, और हर विचार को बिना बंदूक के भी सुना जा सके।